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Ashtavakra Mahagita Gyan Samwad

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    • अश्टावक्र महागीता ज्ञान संवाद

      सत्य अमृत-विशय विशवत
      ज्ञान संवाद है प्रेम डगर, प्रेम ही ज्ञान का दीप जलाए।
      जहां प्रेम है वहां ज्ञान है, उर से उर का दीप जलाए।।
      प्रेम धारणा धर्म समान, प्रेम बिना कुछ समझ ना आए।
      प्रेम बसे जिस अन्तर धरा पर, वो धरा ज्ञान का गीत सुनाए।।

      अष्टावक्र नं प्रेम स्वर में,स्नेह से जनक को सूत्र समझाया।
      विचार वस्तु सब विशय संसारी, विशय विशवत त्याग समझाया।।
      विशय को विशवत जानो, इनके बन्धन को पहचानों।
      विशय रोग है तन मन का, आत्मा का स्वरूप पहचानांे।।

      विशय माया रूप है, आत्मा को कंगाल करें।
      विशय अन्धी दौड है, जीवन को बेहाल करे।।
      विशय वस्तु विचार से, खुद को चेतन रूप बना।
      विशय त्यागकर अन्तर मन से, हृदय में अन्तर ध्यान लगा।।

      विशय विश समान है, विशय अति है मृत समान।
      विशय दौड इक बन्धन है, विशय वेग है अतृप्त अज्ञान।।
      विशय को मन से त्यागकर, मन को दिव्य दीप बना।
      परमार्थ का हाथ बढा, जीवन को संगीत बना।।

      अश्टावक्र नंे जनक से बोला, मुक्ति चाह उर में बसाए।
      ज्ञानियों की सभा बुलाए, बार बार ये दीप जलाए।।
      मुक्ति चाह का वेग प्रबल है, इसीलिए ये सन्त बुलाए।
      चाह से तेरी राह बनेगी, ये ज्ञान ध्यान तेरा रूप सजाए।।

      जो मन ज्ञान को धारण कर ले, परम प्रेम अवतारण कर ले।
      प्रेम की गंगा हृदय में जिसके, परम आत्मा धारण कर ले।।
      करबद्ध जनक ज्ञान पिपासू, अन्तर ज्ञान जिज्ञासा हर पल।
      गुरू षब्द अमृत समान, झम-झम बरसे अन्तर तल।।

      अश्टावक्र नें राज़ बताया, विशय भोग है जग की माया।
      भोग भोग लिया बहुत आपनें, ये तो है संसार का साया।।
      आत्मा तेरी विशय ग्रसित है, जैसे चांद पर ग्रहण घटा।
      रूप तेरा है अमर उजाला, भीतर तेरे नाद बजा।।

      इस नाद की धुन से तू जगा, मुक्ति का प्रभाव बढा।
      विशय भोग से मन भर आया, आत्मा का प्रकाष बढा।।
      गुरू अश्टावक्र अति विवेकी, अन्तर मन को जान लिया।
      जनक के सहज स्वभाव को, अश्टावक्र ने पहचान लिया।।

      बोले, राजन ! ये भोग विशय तो विश रूप की माया।
      प्राणी को प्राणहीन करे, कोई जगत में इनसे जीत ना पाया।।
      गुरू ज्ञान बिन राह ना सूझे, गुरू ज्ञान से पाएं पार।
      गुरू ध्यान से विशय त्याग, गुरू ध्यान है अन्तर सार।।

      ध्यान योग से तृप्ति पाओ, आत्मा पर करो उपकार।
      ध्यान बिना मन ना ठहरे, ध्यान धारणा जीवन सार।।
      अतृप्त मन मनोरोग है, तृप्ति है सुखी संसार।
      गुरू कृपा से ध्यान धरो, ध्यान ही तेरा परम प्रकाष।।

      काया माया विशय वस्तु विचार, ये सब मन का खेल।
      एक सीमा है सबका सार, ये तो मन से मन का मेल।।
      आत्मा को बन्धन बांधे, जैसे दर्पण पर धूल गुबार।
      गुरू ज्ञान से इनको जान, अन्तर तल की सुन पुकार।।

      खुली आंख से माया सूझे, बन्द आंख है अन्तर ध्यान।
      बाहर भ्रम का जाल है, अन्दर है अमृत खान।।
      विशय विशवत त्याग कर, अन्तर्मुख की राह पहचान।
      बाहर दौड अपूर्ण है, भीतर है ब्रह्म का ज्ञान।।

      अन्तर तृप्ति ही एक सहारा, बाकि सब है बेकार।
      मन बुद्धि चित्त अहंकार, तृप्ति से ही पाएं आधार।।
      तृप्त मन है मुक्ति धाम, तृप्त मन ही अंतिम ज्ञान।
      तृप्त मन है जीवन दान, तृप्त मन है परम धाम।।

      अश्टावक्र जनक संवाद, परम ज्ञान में जीवन सार।
      आर्यवर्त के इतिहास में, षाषवत ज्ञान का ये संसार।।
      मानवता का उपकार करे, खोले सबका मनन द्वार।
      षब्द षब्द में अमृत बरसे, हर षब्द में जीवन सार।।

      षाषवत सत्य अमृत समान, सत्य सनातन रूप है।
      जिसे काल नें छुआ नहीं, वो सत्य ब्रह्म स्वरूप है।।
      मन षरीर विशय वस्तु, विचार . सब असत्य का संसार।
      परम प्रेम षाषवत सत्य, बाकि सब है मिथ्य अहंकार।।
      सन्दर्भः- अश्टावक्र महागीता ज्ञान संवाद

  • Ashtavakra

    अश्टावक्र महागीता ज्ञान संवाद

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